छोलिया नृत्य को आत्मसम्मान, आत्मविश्वास और चपलता का प्रतीक माना जाता है। उत्तराखंड में यूं तो पारंपरिक लोकनृत्यों की एक लंबी फेहरिस्त है, लेकिन इनमें छोलिया या सरौं ऐसा नृत्य है, जिसकी शुरुआत सैकड़ों वर्ष पूर्व की मानी जाती है। इतिहासकारों के अनुसार मूलरूप में कुमाऊं अंचल का यह प्रसिद्ध नृत्य पीढ़ियों से उत्तराखंड की सांस्कृतिक पहचान रहा है। छोलिया नृत्य की विशेषता यह है कि इसमें एक साथ श्रृंगार और वीर रस, दोनों के दर्शन हो जाते हैं। हालांकि, कुछ लोग इसे युद्ध में जीत के बाद किया जाने वाला नृत्य तो कुछ तलवार की नोकपर शादी करने वाले राजाओं के शासन की उत्पत्ति का सबूत मानते हैं। तलवार और ढाल के साथ किया जाने वाला यह नृत्य युद्ध में जीत के बाद किया जाता था। इसे पांडव नृत्य का हिस्सा भी माना जाता है। उत्तराखंड राज्य के कुमाऊं क्षेत्र का एक प्रचलित लोकनृत्य है। यह एक तलवार नृत्य है, जो प्रमुखतः शादी-बारातों या अन्य शुभ अवसरों पर किया जाता है। यह विशेष रूप से कुमाऊँ मण्डल के पिथौरागढ़, चम्पावत, बागेश्वर और अल्मोड़ा जिलों में लोकप्रिय है। इतिहासकारों के अनुसार मूलरूप में कुमाऊं अंचल का यह प्रसिद्ध नृत्य पीढ़ियों से उत्तराखंड की सांस्कृतिक पहचान रहा है। छोलिया नृत्य की विशेषता यह है कि इसमें एक साथ श्रृंगार और वीर रस दोनों के दर्शन हो जाते हैं।
छोलिया नर्तकों, जिन्हें छोल्यार भी कहा जाता है, की पोशाक अत्यंत दर्शनीय होती है। पोशाक में लाल-नीले-पीले वस्त्रों की फुन्नियों और टुकड़ों की मदद से सजाया गया सफ़ेद घेरेदार चोला, सफ़ेद चूड़ीदार पाजामा, कपडे का रंगीन कमरबंद मुख्य होता है। इसके अलावा सिर में पगड़ी, कानों में बालियां, पैरों में घुंघरू की पट्टियां और चेहरे पर चंदन और सिंदूर लगे होने से पुरुषों का एक अलग ही अवतार दिखता है।
छोलिया नृत्य का इतिहास-
इस यु़द्ध नृत्य के इतिहास के बारे में आसानी से समझने योग्य तथ्य है कि करीब एक हजार वर्ष पूर्व उत्तराखंड के कुमाऊं अंचल में भी युद्ध राजाओं की सेनाओं के बीच आमने-सामने ढाल-तलवार, भाले, बरछे, कटार आदि से लड़े जाते थे। योद्धाओं को युद्ध में प्रोत्साहित करने के लिए यहां ढोल, दमुवा (दमाऊ), बीन बाजा (मशकबीन-बैगपाईपर), तुरी (तुरही), नगार (नगाड़ा), भेरी व रणसिंघा आदि वाद्य यंत्रों का प्रयोग किया जाता था। संभवतया दूसरे राजाओं की कन्याआंे का वरण करने के लिए भी इसी तरह के युद्ध का प्रयोग किया जाता होगा, जिसका ही आधुनिक संस्करण आज का छोलिया नृत्य है। हालिया दौर में जिस तरह से विवाहों में छोलिया नृत्य का प्रयोग किया जाता है, उसी प्रारूप को इतिहास में लेकर जाएं तो कल्पना करना कठिन नहीं कि उस दौर में राजा अपनी सेना के साथ दूर देशों में विवाह करने जाते थे। सबसे आगे किसी युद्ध की तरह ही लाल ध्वजा सामने आने वालों को आगाह करने के लिए और सबसे पीछे सफेद ध्वजा शांति के प्रतीक स्वरूप रखी जाती थी। कन्या का वरण करने के उपरांत लौटते समय ध्वजाएं इस संदेश के साथ आपस में आगे-पीछे अदल-बदल दी जाती थीं, कि अब सामने वाले को केाई खतरा नहीं है। इस प्रथा का आज भी कुमाउनी विवाहों में निर्वहन किया जाता है। संभव है कि विवाह के लिए जाने के दौरान दूल्हे राजा के सैनिकों को कई बार दूसरे राजा के अपनी पुत्री का विवाह इस राजा से करने की अनिच्छा की स्थिति में उसके सैनिकों से कड़ा मुकाबला करना पड़ता होगा, और कई बार दूल्हे राजा के सैनिक रास्ते में आपस में ही अपनी युद्ध कला को और पैना करने के लिए आपस में ही युद्ध का अभ्यास करते हुए चलते होंगे, और धीरे-धीरे यही अभ्यास विवाह यात्राओं का एक आवश्यक अंग बन गया होगा। लेकिन देश में प्रचलित अन्य अनेकों युद्ध नृत्यों से इतर कुमाऊं के छोलिया नृत्य की एक विशिष्टता इसकी आपस में तलवार व ढाल टकराने और शरीर को मोड़कर कुछ प्रदर्शन करने से इतर इसके नाम ‘छोलिया’ नाम से जुड़ी है।
इतिहासकारों के इस नृत्य को लेकर अलग अलग मत हैं। कुछ लोग इसे युद्ध में जीत के बाद किया जाने वाला नृत्य कहते हैं। अकसर जब कोई राजा युद्ध जीत लेता था तो कई दिनों तक राजमहल में विजय समारोह मनाया जाता था। वीरों को पुरुस्कृत करने के साथ ही उनके युद्ध-कौशल और ढाल-तलवार नचाने की निपुणता का महीनों तक बखान होता रहता था। यह बखान बहुत ही अतिशयोक्तिपूर्ण ढंग से किया जाता था और यह काम राज दरबार के चारण (भाट) किया करते थे। भाटों द्वारा युद्ध वर्णन सुनकर राज दरबार में श्रोताओं के रोंगटे खड़े हो जाते थे। कहा जाता है कि एक बार किसी विजयी राजा के दरबार में इस तरह के युद्ध वर्णन को सुनकर रानियां अभिभूत हो गईं और उन्होंने भी उस युद्ध में वीरों द्वारा दिखाई गई वीरता को प्रतीक रुप में अपनी आंखों के सामने देखना चाहा। तो राजा के आदेश पर उसके वीर सैनिकों ने स्वयं ही आपस में दो विरोधी दल बनाकर और युद्ध की वेष-भूषा पहनकर ढाल-तलवारों से युद्ध के मैदान की ही तरह प्रतीकात्मक युद्ध नृत्य करने लगे। ढोल-दमाऊं, नगाड़े, नरसिंगा आदि युद्ध के वाद्य बजने लगे और वीरों द्वारा युद्ध की सारी कलाओं का प्रदर्शन किया जाने लगा। उन्होंने इस विजय युद्ध में अपने दुश्मन को वीरता और छल से कैसे परास्त किया, इसका सजीव वर्णन उन्होने राज दरबार में किया। राजमहल में प्रतीक रुप में किया गया यह युद्ध सभी रानियों, राजा और दरबारियों को बड़ा ही पसन्द आया। अतः समय-समय पर इस प्रतीक छलिया नृत्य का आयोजन राज दरबार में होने लगा। अति आकर्षक नृत्य, विविध ढंग से कलात्मक रुप से ढोल वादन, ढाल-तलवार द्वारा वीरों का युद्ध नृत्य समाज में अति लोकप्रिय हुआ और राजशाही खत्म होने के बाद आम लोगों में यह नृत्य के रुप में लोकप्रिय हुआ।
कुछ इतिहासकार कहते हैं कि तलवार की नोक पर शादी करने वाले राजाओं के शासन की उत्पत्ति का सबूत ये नृत्य है। ऐसा माना जाता है कि छलिया नृत्य की शुरुआत खस राजाओं के समय हुई थी, जब विवाह तलवार की नोक पर होते थे। चंद राजाओं के आगमन के बाद यह नृत्य क्षत्रियों की पहचान बन गया। यही कारण है कि कुमाऊं में अभी भी दूल्हे को कुंवर या राजा कहा जाता है। वह बरात में घोड़े की सवारी करता है तथा कमर में खुकरी रखता है। इस कला का प्रयोग अधिकतर राजपूत समुदाय की शादी के जुलूसों में होता है तथा शादियों में ध्वज ले जाने की परंपरा भी है। वे अपने साथ त्रिकोणीय सफेद और लाल झंडा (निसाण) भी रखते हैं। जब दूल्हा अपने घर से निकलकर दुल्हन के घर जाता है तो आगे सफेद रंग का ध्वज (निसाण) चलता है और पीछे लाल रंग का। निसाण का मतलब है निशान या संकेत। इसका संदेश यह है कि हम आपकी पुत्री का वरण करने आए हैं और शांति के साथ विवाह संपन्न करवाना चाहते हैं। इसीलिए सफेद ध्वज आगे रहता है। तलवार और ढाल के साथ किया जाने वाला छोलिया नृत्य को आत्मसम्मान, आत्मविश्वास और चपलता का प्रतीक माना जाता है। इसे पांडव नृत्य का हिस्सा भी माना जाता है। छलिया को शुभ माना जाता है तथा यह भी धारणा है कि यह बुरी आत्माओं और राक्षसों से बारातियों को सुरक्षा प्रदान करता है। परन्तु दुर्भाग्य यह है कि दसवीं सदी से निरंतर चला आ रहा हमारी समृद्ध संस्कृति का परिचायक लोक नृत्य आज व्यवसायिकता और आधुनिकता की अंधी दौड़ में कहीं खोता चला जा रहा है। छलिया नर्तक अब मुख्य रूप से मंच प्रदर्शन से ही जीवन निर्वाह करते हैं और देश के हर कोने में यह लोग विभिन्न कार्यक्रमों में शिरकत करने जाते हैं।